Sunday, October 14, 2007

बेदर

कर के बेदर्द ज़माने के हवाले मुझ को

कर के बेदर्द ज़माने के हवाले मुझ को
भूल जाना मेरे चाहने वाले मुझ को

मैं बदल जाऊँ तेरी ही तरह आख़िर कार,
अब भी है वक़्त मेरे दोस्त मना ले मुझ को

और कुछ देर में हो जाएगा सूरज का ज़वाल
और कुछ देर का मेहमाँ हूँ सता ले मुझ को

कुछ भी पर्वा नहीं गैरों के सितम की लेकिन
बे रुख़ी तेरी कहीं मार डाले मुझ को

अब तो रह रह के पुकारेगा तुझे तेरा ज़मीर
याद आऊँगा तुझे, लाख भुला ले मुझ को

इस से पहले कि चुरा ले कोई तितली ख़ुशबू
शाख से तोड़ के ज़ुल्फों में सजा ले मुझ को

तेरा एह्सान कि दुनिया को बनाया तू ने
इक करम और कि दुनिया से उठा ले मुझ

1 comment:

Asha Joglekar said...

कमाल की गज़ल है ।